शुक्रवार, 25 नवंबर 2016

क्या देखता हूँ मैं तुम में

















पूछती हो मुझसे 
क्या देखता हूँ मैं तुम में
सुनो
तुम्हारे केश जल से भरी घटाएं
जो बरसती हैं सिर्फ 
मेरे कंधों पर
आँखों में तुम्हारी आईने
जिनमे दिख जाता है संसार का सौंदर्य सारा
होंठ तुम्हारे रंगरेज़
रंग लेते हैं अपने ही रंग में
मेरे अधरों को
बाहें तुम्हारी कोमल लताएं
जिन्होंने जोड़ लिया जीवन मुझसे
जाने किस आशा से
और कर दिया कोमल
मेरी ह्रदय शिला को भी
और सुनो
तुम्हारी गोद में
दुनियाभर का सुकून देखता हूँ
न पूछा करो मुझसे
कि क्या चाहता हूँ मैं
एक लंबा सफ़र तुम्हारे साथ बेमतलब सा
नदी किनारे बैठें हम तुम
पानी में पाँव डाले
लहरों को आता जाता देखते रहे
और
आसमानी कपडे पहने तुम
घुटनों पर चेहरा टिकाये
मुस्कुराकर देखती रहो मेरी आँखों में
और हवा से उड़तीं तुम्हारे लम्बी जुल्फें
नदी जैसी तुम्हारी कोमल काया
जगा देती हैं मेरे सोये सागर को
टूट जाते हैं सभी तटबंध मेरे भावों के तब
नहीं रहता मन में भय
किसी सीमा का
न किसी अनर्थ का ही
बस्स
बढ़ जाता हूँ मैं तुम्हारी ओर
हर मर्यादा को लांघ कर
हर अपकर्ष हर पतन को भूल कर
तुम भी तो करती हो
प्रतीक्षा मेरी
मुझसे मिलने के लिए
मुझमे घुलने और समा जाने के लिए
यूँ भी तो उतर जाता है सागर
अपनी नदी में