रविवार, 3 जुलाई 2016

बाज़ार में।

बिकने लगी है दुनिया अब तो बाज़ार में।
पैसे हैं जेब में तो आओ बाज़ार में।।

बदली हुई सूरत में हर शक्ल दिखेगी।
देखा नहीं जो अब तक देखो बाज़ार में।।

जो दिन के उजाले में हैं दिख रहे ख़ुदा।
खुलती हैं उनकी गलियाँ शब को बाज़ार में।।

वीरान गुलिस्ताँ में मरघट सी खा़मुशी।
भंवरों ने बेच डाला गुल को बाज़ार में।।

किस्मत तो देखिए कि बाज़ार का मालिक।
नीलाम हो रहा है अब वो बाज़ार में।।

घर जिनके अंधेरों में हर रोज़ हैं डूबे।
उनके ही दम उजालों! तुम हो बाज़ार में।।

पीले कनेर के फूल












पीले कनेर के फूल 
असाढ़ की बारिश
भीगी हुयी गंध।
जी करता है,
अंजुरी भर भर पी लूँ
गीली खुशबुओं वाली भाप।
और चुका दूँ सारी किश्तें
चक्रवृद्धि ब्याज सी
बरस दर बरस बढ़ती प्यास की।
चूर चूर झर रही
चंद्रमा की धूल, कुरुंजि के फूलों पे
कच्ची पगडंडियों से गुजरती
स्निग्ध रात उतर जाती है।
स्वप्नों की झील में
कंपित जलतरंग, दोलित प्रपात
फूट रहे ताल कहीं राग भैरवी के।
ओह्ह …
यह परदा किसने हटाया ?
कि धूप में पड़ी दरार
घाम में विलुप्त ख्वाब ।
रेत हुयी तुहिन बिंदु
ऐंठती हैं वनलताएं निर्जली प्रदेश में
सूखे काठ सा हुआ मन।
कौन है यवनिका?

डॉ पवन विजय के मुक्तक।





मन पर कितने घाव लगे हैं तुम्ही कहो मैं किसे दिखाऊं।
शब्दों पर भी दांव लगे  हैं तुम्ही  कहो मैं  किसे बताऊँ ।
पीड़ा का   चरणामृत   पीते  कथा  बांच  दी जीवन की
व्यथा कंठ पर पांव रखे है तुम्ही कहो मैं  किसे  सुनाऊँ।



बादल बिजली धरती अम्बर गीला कर बरसातें भींगी,
आपस में कुछ व्यथा कथा कह के दो जोड़ी आँखें भींगी। 
एक ज़माना बीत गया जब चाँद लिपट कर रोया था,
तब से कितने दिन भीगे और जाने कितनी रातें भींगी।



सुमिरन  छूटा   माला  रूठी मनके टूटे जापों में।
आशीषों ने मुँह फेरा तो ठौर मिला अभिशापों में।
गंगा में कर दिया प्रवाहित पुन्यों की बोझिल गठरी,
लो! मैं साझीदार  हुआ   हूँ आज तुम्हारे पापों में।




धूप खिली लाज की सांवरी अब क्या करे।
गंध हुयी अनावृत्त पांखुरी अब क्या करे।
सांकले खुलीं हैं आज सारी वर्जनाओं की,
अधर कांपते  रहे  बांसुरी  अब  क्या करे।


हवाएं मुझसे होकर तुम तलक तो जा रही होंगी
तुम्हारे द्वार पर सावन को फिर बरसा रहीं होंगी।
उन्हें छूकर समझ लेना हृदय की अनकही बातें,
कभी जो कह नहीं पाया वही बतला रही होंगी।