सोमवार, 7 जून 2010

मेरी धरती



                                  
                                
  तुम जलती हो ,
 जो धूप मै देता हूँ.
तुम भीगती हो,
जो पानी मै उडेलता हूँ.
तुम कांपती हो,
जो शीत मै फैलता हूँ.
सबकुछ समेटती हो,
जो मै बिखेरता हूँ.
तुम सहती हो
बिना किसी शिकायत के


मेरी धरती,
तुम रचती हो,
सृष्टि  गढ़ती हो
और मै तुम्हारा आकाश
तुम्हे बाहों में भरे हुए
चकित सा देखता  रहता हूँ
तुम हसती हो
निश्छल  हसती जाती हो
हवाए महक जाती है
रुका समय चल पड़ता है
और ज़िन्दगी नए पड़ाव
तय करती है.